एक बार फिर भारतवर्ष अपनी आजादी की वर्षगांठ मना रहा है. 15 अगस्त 1947 से लेकर आज तक 75 वर्ष बीत गए, पर आज जहां हम खड़े हैं क्या यही गांधी जी का अभिषिप्त भारत है. क्या उनके रोम- रोम प्राण आत्मा में जहां भारत बसा था क्या उन स्वतंत्रता सेनानियों, शहीदों,दीवानों व सर्वस्व बलिदानियों का भारत है. जो दुर्दम आतातायी विदेशी आक्रांताओं से संघर्ष करते हुए हमेशा उनकी प्रत्येक अंतर्मन की धड़कन में विद्यमान रहता था. जिस पर उनको नाज था? जिन्होंने भारत माता की पुनः प्रतिष्ठा के लिए अपने जीवन की बाजी लगा दी थी.
वंदे मातरम का उद्घोष करते हुए भारत माता की जयकार करते ना जाने कितने ही शहीदों ने हंसते -हंसते स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे लेकिन भारत माता की गरिमा एवं महिमा को बट्टा नहीं लगने दिया. उनके जेहन में फांसी का फंदा, काला पानी और भी मानवीय यातनाएं सब मंजिले मकसूद के सामने तुच्छ थी. लेकिन मिला क्या विभाजन की बहुत बड़ी कीमत चुका कर 15 अगस्त 1947 को भारत को राजनीतिक दासता से मुक्ति मिली. विभाजन ने देश को अमिट घाव दिए, लाखों-करोड़ों जिंदगियां तबाह हो गई.
लगभग एक शताब्दी के सतत संघर्ष और बहुमूल्य बलिदानों की बदौलत 15 अगस्त 1947 को भारत विदेशी दासता से पूर्ण स्वाधीन हुआ. कितना खून इस क्रांति यज्ञ की भेंट चढ़ गया. हमारी भारत मां तो शहीदों के पावन रक्त से अभिषिक्त होकर दासता के पाश से मुक्त हो पाई. स्वतंत्रता महायज्ञ का प्रारंभ तो सन 1857 में रानी लक्ष्मीबाई के वीरता पूर्ण बलिदान के साथ ही शुरू हो गया था. 19 वी शताब्दी के अंतिम दशक में ही तीन चापेकर भाई और उनके साथी अपने जीवन की आहुति देकर अपनी जन्म दात्री को धन्य कर गए.
स्वतंत्रता की साधना का यह यज्ञ निरंतर चलता रहा. सन् 1905 में बंगाल विभाजन के समय संपूर्ण भारत एक स्वर में अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो” की नीति के खिलाफ़ उठ खड़ा हुआ. “वंदे मातरम” की सिंह गर्जना करते हुए कितने देशभक्त फांसी के फंदे पर झूल गए. उनकी कुर्बानियां व्यर्थ नहीं गई और बंगाल विभाजन रुक गया. काले पानी की काल कोठरी में देश के असंख्य जवानों को भयानक यातनाएं देकर मौत के घाट उतारा गया और फांसी पर लटका दिया गया.
यह भी निर्विवाद सत्य है की आजादी के पथ के पथिकों का एक बड़ा समूह सत्य ग्रह एवं अहिंसक क्रांति के मार्ग से महात्मा गांधी के नेतृत्व में आगे बढ़ा और देश को आजाद करवाने के लिए बड़ा आंदोलन खड़ा किया. गांधी जी के इस महत्वपूर्ण योगदान को देश कभी नहीं भुला सकता है. लेकिन यह कह देना कि हमें बिना खड़ग बिना ढाल या खून की एक बूंद बढ़ाए बिना आजादी प्राप्त हो गई. ये उन हुतात्मा की शहादत के प्रति बेमानी होगा जिन्होंने राष्ट्र की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया और सरफरोशी की तमन्ना दिल में लिए फांसी के तख्ते पर झूल गए. लेकिन क्या आज हम उन शहीदों की शहादत के प्रति न्याय कर पा रहे हैं यह 75 साल के बाद भी बड़ा सवाल है?