राजस्थान, पंजाब
राजस्थान, पंजाब और हरियाणा की मधुमक्खियां हिमाचल प्रदेश के सेब में मिठास घोल रही हैं। प्रति हेक्टेयर दो से तीन बक्से मधुमक्खियों के जरूरी है।
ये सेब के फूलों का परागण करके हिमाचली सेब की गुणवत्ता और उत्पादन को बढ़ा रही हैं। फूल आने शुरू होते ही बगीचों में मधुमक्खियों के बॉक्स रखने की मांग बढ़ गई है। एक बक्से का किराया एक हजार रुपये तक वसूला जा रहा है। सीजन में हर साल डेढ़ से दो लाख बक्सों की मांग रहती है।
बगीचों में आजकल फूल आने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। परागण के लिए मधुमक्खियों की लगातार मांग बढ़ रही है। बागवानी विशेषज्ञ अच्छी पैदावार के लिए मधुमक्खियों को परागण के लिए बेहतर मानते हैं। प्रगतिशील बागवान राजकुमार ठाकुर और विनोद चौहान का कहना है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और हरियाणा से बागवानों को किराये पर मधुमक्खियों के बक्से उपलब्ध करवा रहे हैं।
उनका कहना है कि मौन पालकों को एक बक्से का किराया एक हजार रुपये दिया जा रहा है। एक महीने बाद बक्से मौन पालक को लौटाए जाते हैं। मौन पालन विशेषज्ञ कहते हैं कि अधिकांश मौन पालक अब इटली की मधुमक्खियों को पाल रहे हैं। इससे सेब के बगीचों में सही समय पर परागण किया जाए तो सेब की पैदावार अधिक ली जा सकती है।
बागवानी विशेषज्ञों का कहना है कि बगीचों में परागण के लिए समय पर मौन बक्से रखे जाएं तो औसतन फल उत्पादन में चालीस प्रतिशत बढ़ोतरी की जा सकती है। इस बार मौसम में लगातार हो रहे बदलाव के कारण बगीचों में परागण के लिए घूमने वाले मित्र कीटों की संख्या कम हो रही है। इसलिए बागवानों को मौन बक्से लगाने की सलाह दी जाती है। इसके लिए बागवानी विभाग की ओर से लोगों को जागरूक करने के लिए शिविर भी लगाए जाते हैं।
कृषि विज्ञान केंद्र रोहडू के वैज्ञानिक डॉ. नरेंद्र कायथ कहते हैं कि प्रति हेक्टेयर दो से तीन बक्से मधुमक्खियों के जरूरी होते हैं। इससे बगीचों में परागण में सहयोग मिलता है। उनका कहना है कि हर बागवान के लिए अपने सेब के बगीचे में परागण के लिए मौन बक्से लगाना जरूरी है। इससे सेब के बगीचे में चालीस प्रतिशत तक अधिक पैदावार ली जा सकती है।
हिमाचल में सेब के लिए करीब अढाई लाख बक्से की रहती है मांग
प्रदेश में सेब बागवानी करीब सवा लाख हेक्टेयर पर हो रही है। कुछ बागवान अभी मधुमक्खियों का इस्तेमाल परागण के लिए नहीं कर रहे हैं। निचले क्षेत्र में फल लगने के बाद बक्सों को ऊंचाई वाले क्षेत्र के बगीचों में पहुंचाया जाता है। ऐसे में हर साल दो से ढाई लाख बक्से की मांग रहती है।