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हिमाचल के इस मंदिर में अखंड जल रहीं मां की दिव्‍य ज्‍योतियां, कई महारथियों के घमंड हुए चूर, बेहद रोचक है इतिहास व मान्‍यता

हिमाचल के इस मंदिर में अखंड जल रहीं मां की दिव्‍य ज्‍योतियां

हिमाचल प्रदेश देवी देवताओं की भूमि है, कांगड़ा जिला के ज्वालामुखी में मां ज्वाला की अखंड ज्योतियां लगाज्‍वालाजी में अखंड जल तार जल रही हैं। इन ज्योतियों के दर्शन मात्र से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और आत्मिक शांति के साथ-साथ पाप से मुक्ति मिलती है। अलौकिक ज्योतियां साक्षात मां का स्वरूप हैंज्‍वालाजी में अखंड जल जो पानी में भी नहीं बुझती। कालांतर से लगातार जल रही हैं। इस मंदिर में मां के सम्मान में एक दो नहीं बल्कि दिन में पांच आरतियां होती हैं। मां के इस अलौकिक मंदिर से जुड़ी कई कहानियां हैं।

जो इसके प्राचीन से प्राचीन व ऐतिहासिक होने का गवाह हैं। ज्वालामुखी में माता की जिव्हा गिरी थी। जिव्हा में ही अग्नि तत्व बताया गया है, जिससे यहां पर बिना तेल, घी के दिव्य ज्योतियां जलती रहती हैं। मंदिर के गर्व गृह में सात पवित्र ज्योतियां हजारों सालों से भक्‍तों की आस्था का केंद्र बनी हुई हैं।

मान्यता है कि राजा अकबर ने मां ज्वालाजी के अनन्य भक्‍त ध्यानु की श्रद्धा व आस्था की परीक्षा उस समय ली जब ध्यानु माता के दरबार में अपने साथियों के साथ शीश नवाने के लिए आगरा से ज्वालामुखी की तरफ बढ़ रहे थे। अकबर ने बिना तेल घी के जल रही ज्योतियों को पाखंड बताने के बाद यह शर्त रखी गयी कि वो ध्यानु के घोड़े का सिर धड़ से अलग करेगा तो ध्यानु की आराध्य मां इसे पुनः लगा सकती है? ध्यानु भक्‍त ने हां का जबाब देने के बाद अकबर ने घोड़े का सिर कलम करवा दिया था जो ज्वालाजी की शक्ति से पुनः लग गया।

ध्यानु भक्‍त ने भी मां के आगे अपना सिर धड़ से अलग कर लिया था। जिसे भी माता की अदभुत शक्ति से पुनः धड़ से जोड़ दिया। माना जाता है कि अकबर ने इस प्रयास के बाद पवित्र ज्योतियों के स्थान पर लोहे के कड़े लगवा दिए, ताकि ज्योतियां बुझ सकें। ज्योतियां बुझाने के लिए ज्वालामुखी के साथ लगते जंगल से पानी की नहर भी ज्योतियों पर डाली। लेकिन माता के चमत्कार से पानी पर भी पवित्र ज्योतियां जल उठी थीं।

 

ऐसा मंदिर जहां खुद सम्राट अकबर हार गया 

ज्वालाजी मंदिर को ज्वालामुखी या ज्वाला देवी के नाम से भी जाना जाता है। ज्वालाजी मंदिर हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी के दक्षिण में 30 किमी और धर्मशाला से 56 किमी की दूरी पर स्थित है। ज्वालाजी मंदिर हिंदू देवी “ज्वालामुखी” को समर्पित है। कांगड़ा की घाटियों में, ज्वाला देवी मंदिर की नौ अनन्त ज्वालाएं जलती हैं, जो पूरे भारत के हिंदू तीर्थयात्रियों को आकर्षित करती हैं।

मंदिर की नौ अनन्त ज्वालाओं में उनके निवास के कारण, उन्हें ज्वलंत देवी के रूप में भी जाना जाता है। यह एक ऐसा अद्भुत मंदिर है जिसमें भगवान की कोई मूर्ति नहीं है। ऐसा माना जाता है कि देवी मंदिर की पवित्र लपटों में रहती हैं, जो बाहर से बिना ईंधन के दिन-रात चमत्कारिक रूप से जलती हैं।

इन ज्योतियों के दर्शन मात्र से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और आत्मिक शांति के साथ-साथ पाप से मुक्ति मिलती है। अलौकिक ज्योतियां साक्षात मां का स्वरूप हैं जो पानी में भी नहीं बुझती। कालांतर से लगातार जल रही हैं।

इस मंदिर में मां के सम्मान में एक दो नहीं बल्कि दिन में पांच आरतियां होती हैं। मां के इस अलौकिक मंदिर से जुड़ी कई कहानियां हैं। जो इसके प्राचीन से प्राचीन व ऐतिहासिक होने का गवाह हैं। ज्वालामुखी में माता की जिव्हा गिरी थी। जिव्हा में ही अग्नि तत्व बताया गया है, जिससे यहां पर बिना तेल, घी के दिव्य ज्योतियां जलती रहती हैं। मंदिर के गर्व गृह में सात पवित्र ज्योतियां हजारों सालों से भक्‍तों की आस्था का केंद्र बनी हुई हैं।

ज्वाला देवी मंदिर का रहस्य और कहानी…..?

ज्वाला देवी मंदिर के रहस्य के पीछे की कहानी यह है कि पवित्र देवी नीली लॉ के रूप में खुद प्रकट हुईं थीं और यह देवी का चमत्कार ही है कि पानी के संपर्क में आने पर भी ये लॉ नहीं बुझती। यह मंदिर गर्भगृह में स्थित है। यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है और हिंदू भक्तों का मानना है कि ज्वाला देवी मंदिर की तीर्थयात्रा उनके सभी कष्टों का अंत कर देती है। यह माना जाता है कि देवी सती की जीभ इस स्थान पर गिरी थी जब उन्होंने खुद का बलिदान दिया था। बाद में राजा भूमि चंद कटोच ने इस भव्य मंदिर और नौ ज्वालाओं का निर्माण किया। ज्वाला देवी दुर्गा के नौ रूपों – महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्य वासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका और अंजनी देवी का प्रतिनिधित्व करती हैं।

इस मंदिर के पीछे एक पौराणिक कथा भी प्रचलित है। कथा यह है कि, कई हजार साल पहले एक चरवाहे ने पाया कि उसकी एक गाय का दूध नहीं बचता था। एक दिन उसने गाय का पीछा किया और वहां एक छोटी सी लड़की को देखा, जो गाय का पूरा दूध पी जाती थी।

उन्होंने राजा भूमि चंद को इसकी सूचना दी, जिन्होंने अपने सैनिकों को पवित्र स्थान का पता लगाने के लिए जंगल में भेजा, जहां मा सती की जीभ गिरी थी क्योंकि उनका मानना था कि छोटी लड़की किसी तरह देवी का प्रतिनिधित्व करती थी। कुछ वर्षों के बाद, पहाड़ में आग की लपटें पाई गईं और राजा ने इसके चारों ओर एक मंदिर बनाया। यह भी कल्पित है कि पांडवों ने इस मंदिर का दौरा किया और इसका जीर्णोद्धार किया। लोक गीत “पंजन पंजवन पंडवन तेरा भवन बान्या” इस विश्वास की गवाही देता है।

मान्यता है कि राजा अकबर ने मां ज्वालाजी के अनन्य भक्‍त ध्यानु की श्रद्धा व आस्था की परीक्षा उस समय ली जब ध्यानु माता के दरबार में अपने साथियों के साथ शीश नवाने के लिए आगरा से ज्वालामुखी की तरफ बढ़ रहे थे।

अकबर ने बिना तेल घी के जल रही ज्योतियों को पाखंड बताने के बाद यह शर्त रखी गयी कि वो ध्यानु के घोड़े का सिर धड़ से अलग करेगा तो ध्यानु की आराध्य मां इसे पुनः लगा सकती है? ध्यानु भक्‍त ने हां का जबाब देने के बाद अकबर ने घोड़े का सिर कलम करवा दिया था जो ज्वालाजी की शक्ति से पुनः लग गया। ध्यानु भक्‍त ने भी मां के आगे अपना सिर धड़ से अलग कर लिया था। जिसे भी माता की अदभुत शक्ति से पुनः धड़ से जोड़ दिया। माना जाता है कि अकबर ने इस प्रयास के बाद पवित्र ज्योतियों के स्थान पर लोहे के कड़े लगवा दिए, ताकि ज्योतियां बुझ सकें। ज्योतियां बुझाने के लिए ज्वालामुखी के साथ लगते जंगल से पानी की नहर भी ज्योतियों पर डाली। लेकिन माता के चमत्कार से पानी पर भी पवित्र ज्योतियां जल उठी थीं।

नंगे पांव  पहुंचा था राजा अकबर मंदिर में चढ़ाया सोने का छत्र ,जो आज भी है

राजा अकबर द्वारा तमाम कोशिशों के बाद जब ज्वालाजी की पवित्र ज्योतियां नहीं बुझी तब इस अदभुत शक्ति के आगे नतमस्तक होकर राजा ने दिल्ली से ज्वालाजी तक की पैदल यात्रा करके सवा मन सोने का छत्र माता के श्री चरणों में अर्पण किया। अकबर को इस बात का घमंड हुआ कि उस जैसा सोने का छत्र कोई नहीं चढ़ा सकता। लेकिन माता ने उसका छत्र स्‍वीकार नहीं किया व अर्पित करते ही छत्र किसी अज्ञात धातु में बदल गया। आज तक कई विज्ञानियों की जांच के बाद भी धातु का पता नहीं चल सका है।

नौ ज्वालाओं का महत्व 

ज्वाला जी मंदिर में देवी की पवित्र ज्योति को नौ अलग-अलग तरीकों से देखा जा सकता है। ऐसा कहा जाता है कि नवदुर्गा 14 भुवन की रचयिता हैं, जिनके सेवक सतवा, रजस और तमस हैं।

चांदी के गलियारे में दरवाजे के सामने जलती हुई मुख्य लौ महाकाली का रूप है। यह ज्योति ब्रह्म ज्योति है और भक्ति और मुक्ति की शक्ति है।

मुख्य ज्योति के आगे महामाया अन्नपूर्णा की लौ है जो भक्तों को बड़ी मात्रा में देती है।

दूसरी तरफ देवी चंडी की ज्वाला है, जो दुश्मनों की संहारक है। हमारे सभी दुखों को नष्ट करने वाली ज्वाला हिंगलाजा भवानी की है। पांचवीं ज्योत विदवाशनी है जो सभी दुखों से छुटकारा दिलाती है।महालक्ष्मी की ज्योति, धन और समृद्धि का सबसे अच्छा ज्योति, ज्योति कुंड में स्थित है। ज्ञान की सर्वश्रेष्ठ देवी, देवी सरस्वती भी कुंड में मौजूद हैं।बच्चों की सबसे बड़ी देवी देवी अंबिका को भी यहाँ देखा जा सकता है। सभी सुख और लंबी आयु देने वाली देवी अंजना इस कुंड में मौजूद हैं।

हवाई मार्ग से ज्वाला देवी मंदिर कैसे पहुंचे :  

कांगड़ा घाटी से लगभग 14 किमी की दूरी पर गग्गल हवाई अड्डा निकटतम हवाई अड्डा है। आप दिल्ली से धर्मशाला के लिए फ्लाइट ले सकते हैं और फिर कैब बुक कर सकते हैं। आवागमन के लिए आप कैब या बस किराए पर ले सकते हैं। चंडीगढ़ हवाई अड्डा लगभग 200 किमी की दूरी पर है।

रेल मार्ग द्वारा ज्वाला देवी मंदिर कैसे पहुंचे : 

निकटतम ब्रॉड गेज रेलहेड पठानकोट है। यह 123 किमी की दूरी पर स्थित है। निकटतम नैरो गेज रेलहेड ज्वालाजी रोड, रानीताल है, यह मंदिर से 20 किमी की दूरी पर स्थित है। यहाँ से टैक्सियाँ और बसें आसानी से उपलब्ध हैं।

सड़क मार्ग से ज्वाला देवी मंदिर कैसे पहुंचे :

नई दिल्ली से कांगड़ा जाने वाली सीधी बसें यात्रा को सुविधाजनक बनाती हैं। इसमें लगभग 13 घंटे लगते हैं और किराया लगभग 1000 रूपये है। आप मंदिर तक पहुँचने के लिए ज्वालामुखी बस स्टैंड तक पहुँच सकते हैं। मंदिर सड़क मार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। पंजाब और हरियाणा के शहरों से राज्य परिवहन की बसें अक्सर कांगड़ा तक चलती हैं। टैक्सी भी उपलब्ध हैं।

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