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हिमाचल: अवैज्ञानिक और अवैध दोहन से खतरे में जड़ी-बूटियां, 10 साल में 50 फीसदी तक हुईं लुप्त

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हिमालयन क्षेत्रों में उगने वाली औषधीय गुणों से भरपूर जड़ी-बूटियां खतरे में हैं। अवैज्ञानिक व अवैध रूप से इनका दोहन करने से कई प्रजातियां खत्म होने के कगार पर हैं। पिछले पांच वर्षों में कई जड़ी-बूटियां 50 प्रतिशत तक लुप्त हो गईं हैं। हिमालयन क्षेत्र में उगने वाली क्षीर (लीलियम) जड़ी-बूटी पर सबसे ज्यादा खतरा है। इस प्रजाति की पैदावार 80 फीसदी कम होकर मात्र 20 प्रतिशत रह गई है। हिमालयन वन अनुसंधान केंद्र, शिमला की ओर से किए गए अध्ययन में इसका खुलासा हुआ है।

मनाली में जड़ी-बूटियों की खेती को बढ़ावा देने के लिए चल रही कार्यशाला में पहुंचे वैज्ञानिकों ने इस पर चिंता जताई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालयन क्षेत्र में 160 से अधिक प्रजातियों की जड़ी-बूटियां लुप्त होने के कगार पर हैं। हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड में कुछ साल पहले बड़े पैमाने पर जड़ी-बूटियां पाई जाती थीं। कैंसर, पेट से संबंधित बीमारियों और जोड़ों के दर्द आदि में रामबाण जड़ी-बूटियां का अस्तित्व खतरे में है।

हिमालयन वन अनुसंधान केंद्र शिमला के वैज्ञानिकों ने इन पर वर्षों तक अध्ययन किया है। संस्थान के तकनीकी अधिकारी डॉ. जोगिंद्र चौहान का कहना है कि अध्ययन में पाया गया है कि जड़ी-बूटियों की कई प्रजातियां खत्म हो रही हैं। इसका मुख्य कारण इनका अवैज्ञानिक एवं अवैध दोहन है। मसलन, यदि कोई जड़ी एक वर्ग मीटर में दस पाई जाती हैं, तो सभी का दोहन होने से अगले पांच साल में वे लुप्त हो रही हैं। उनके अनुसार लीलियम इनमें सबसे प्रमुख है। यह प्रजाति महज दस से 20 प्रतिशत तक ही रह गई है। सालम मिश्री, काकोली, हेबीनेरिया, महामेदा, नाग छतरी, कूड़ू, पतीश, चोरा, वन ककड़ी, गूगल धूप (जुरेनिया) सहित 160 से अधिक ऐसी प्रजातियों को बचाने की जरूरत है। इसके लिए जड़ी-बूटियों की व्यावसायिक तौर पर खेती करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। कोऑपरेटिव सोसायटियां बनाकर विपणन की समस्या का भी आसानी से समाधान हो सकता है। संवाद

हिमाचल के कोने-कोने में किया सर्वेक्षण

अध्ययन के लिए केंद्र ने हिमाचल के कोने-कोने में सर्वेक्षण किया। बुजुर्गों से फीडबैक लिया गया। करीब दस साल पहले के उत्पादन और अब के उत्पादन का आधार बनाकर वैज्ञानिक तरीके से निरीक्षण कर कुछ जगह चिह्नित भी की गईं। इसमें पाया गया कि 160 के करीब प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं।

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