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कर्मियों के लिए पेंशन नही तो माननीयों के लिए क्यों? नेता कर्ज लेकर पी रहे घी, दिल्ली में आप ने बढाया माननीयों का वेतन

शिमला, एक वक्त था जब देश के नेता गरीब जरूरतमंद के लिए विकास के नाम पर सरकार बनाते थे. वास्तव में नेता सेवा भाव से राजनीति में आते थे. देश की आम जनता के लिए योजनाएं बनती थी. उसके बाद सरकारी कर्मियों पर आधारित नीतियां बनने लगी. सरकार के लिए सरकारी कर्मी वोट बैंक का सबसे बड़ा साधन बन गए. जन सेवक व सरकारी कर्मचारी में बड़ा अंतर ये होता है कि सरकार अफसरशाहों के साथ नीतियां बनाती है ये सरकारी कर्मी उन्हें धरातल पर लागू करने का दम्भ भरते है और इन्ही के इर्द गिर्द राजनीति का पहिया घूमता है.
ये भी निर्बाध सत्य है की जिस भी सरकार से कर्मचारी नाराज़ हो गया वह सत्ता से बाहर हो गई. हिमाचल में पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का उदाहरण सबके सामने है. जिन्होंने “No Work No Pay” लागू कर अपने लिए मुख्यमंत्री के दरवाजे हमेशा के लिए बंद कर लिए. अटल बिहारी वाजपेयी के समय पेंशन बन्द करने का निर्णय हुआ था. उसके बाद भाजपा को सत्ता में आने के लिए 2014 तक का इंतज़ार करना पड़ा था.
लेकिन अब तो कर्मचारियों का ये गुरुर भी टूट रहा है क्योंकि सरकारी दफ्तरों का धड़ाधड़ निजीकरण हो रहा है. ठकेदार के सौजन्य से भर्तीयां की जा रही है. जो सरकारी कर्मी है वह भी पुरानी पेंशन बहाली का संघर्ष कर रहे है. देश बदल रहा है क्योंकि नेता अपने फायदे के हिसाब से नियम कानून बनाते है.अपनी सुख सुविधाओं का खास ध्यान रखा जाता है. फ़िर भले ही देश प्रदेश कर्ज की गर्त में क्यों न डूब जाए. ये बात इसलिए बतानी पड़ रही है क्योंकि जो नेता कभी समाज सेवा करने राजनीति में आते थे वह अपनी सेवा में लग गए है। हिमाचल प्रदेश ही 70 हज़ार करोड़ के कर्ज के बोझ तले दब चुका है ये कर्ज निरंतर बढ़ रहा है.

हिमाचल प्रदेश में नेता बढ़ते कर्ज़ को लेकर एक दूसरे पर निशाना साध रहे है. कांग्रेस के नेता हर्षबर्धन चौहान ने फ़िर से ये बहस छेड़ दी है. उन्होंने कहा की कांग्रेस सत्ता में आई तो VIP Culture खत्म करेंगे. ये तो भविष्य के गर्भ में छिपा है लेकिन सवाल यहाँ ये उठता है कि नेता बनने से पहले जिस व्यक्ति के पास कुछ नही होता व चुनाव जीतने के बाद करोड़ पति कैसे बन जाता है। यहाँ तक की ग्राम पंचायत प्रधान से लेकर पंच तक 5 साल में साधन सम्पन कैसे हो जाते हैं?

नेताओं के लिए तो पेंशन का प्रावधान है फ़िर चाहे वह शपथ के बाद एक दिन ही प्रतिनिधित्व करे, वह पेंशन का हक़दार है. लेकिन कर्मचारी अपनी सारी जिंदगी सरकार की सेवा में लगा देता है उसको पेंशन नही, फ़िर कर्मी तो नाराज़ होंगे, नेताओ को पहले अपनी पेंशन बन्द करनी चाहिए बाद में कर्मियों की, तब शायद विवाद न बढे. समाधान ये भी हो सकता है की नेता से लेकर कर्मी तक को न्युनतम पेंशन का प्रावधान हो. देश का घाटा कर्मियों से ही नही नेताओं के एशो आराम पर भी तो हो रहा है.

आपको सन् 1974 के दौर की भी याद दिलाते है जब एक चूड़ियां बेचने वाले दुकानदार की वजह से हिमाचल में माननीयों के लिए पेंशन लगी थी। मेवा से 1967 से 1972 तक विधायक रहे अमर सिंह जब चुनाव हारे तो उनको परिवार का गुजारा चलाने के लिए चूड़ियां बेचनी पड़ी। डॉ परमार ने जब ये देखा तो उनका मन पसीज गया व 300 रुपए पेंशन का प्रावधान विधायकों के लिए कर दिया। आज 300 रुपए की ये पेंशन 80 हज़ार को पार कर गई। प्रदेश पर कर्जा 70 हज़ार करोड़ पार कर गया। प्रदेश में बेरोजगारी 10 लाख को पार कर गई। जनता त्रस्त कर्मचारी पेंशन मांग रहा है. नौकरी ठेके पर है. कर्मचारी को पेंशन तो युवाओं को रोजगार की टेशन है. उधर शपथ लेने के बाद माननीयों को पेंशन की मौज है.
उधर अपने आप को जनता का हितैषी बताने वाली आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में माननीयों का वेतन बढ़ा दिया है. वेतन लगभग दोगुनी वृद्धि की गई है. इस पर भी सवाल उठ रहे हैं. दल कोई भी हो सत्ता में आने के बाद जनता का कम अपना ध्यान ज्यादा रखते हैं.

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